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पद्मचिन्हं धरे मोह को वश करे, पुत्र राजा कनक क्रोध को क्षय करे। ध्यान मण्डित महावीर्य अजितं धरे, पूजते जास को कर्मबन्धन टरे।।
ऊँ ह्रीं अजितवीर्यजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।109॥
(दोहा)
राजत बीस विदेह जिन, कबहिं साठ शत होंय। पूजत वन्दन जास को, विघ्न सकल क्षय
होय॥ ऊँ ह्रीं अस्मिन् बिम्ब प्रतिष्ठाध्वरोद्यापने मुख्यपूजार्ह पंचमबलयोन्मुद्रितविदेहक्षेत्रे सुषष्ठिसहितैकशतजिनेश संयुक्तनित्य विहरमाण विंशतिजिनेभ्यः पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
षष्ठ वलय में आचार्य परमेष्ठी के 36 गुणों की पूजा
(भुजंगप्रयात) हटमें अनन्तानुबंधी कषायें, करण से हैं मिथ्यात तीनों खपाये।
अतीचार पच्चीस को हैं बचाये, सु आचार दर्शन परम गुरु धराये।। ऊँ ह्रीं दर्शनाचार संयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।110॥
न संशय विपर्यय न है मोह कोई, परम ज्ञान निर्मल धरे तत्व जोई। स्व-पर ज्ञान से भेदविज्ञान धारे, सु आचार ज्ञानं स्व-अनुभव सम्हारे।। ऊँ ह्रीं ज्ञानाचार संयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।111॥
सुचारित्र व्यवहार निश्चय सम्हारे, अहिंसादि पांचों व्रत शुद्ध धारें।
अचल आत्म में शुद्धता सार पाए, जजू पद गुरू के दरब अष्ट लाए।। ॐ ह्रीं चरित्राचार संयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥112॥
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