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जलन भरत्न विमल कहवाय, जो अभूत व्यवहार वसाय। भावकर्म अठकर्म महान, हत निर्मल जन पूजू जान।। ऊँ ह्रीं निर्मलजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।81॥
मन-वच काय गुप्ति धरतार, चित्रगुप्ति जिन हैं अविकार।
पुजू पग तिन भाव लगाय, जासें गुप्तित्रय प्रगटाय।। ऊँ ह्रीं चित्रगुप्तिजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।82॥
चिरभव भ्रमण करत दुःख सहा, मरण समाधि न कबहूं लहा। गुप्ति समाधि शरण को पाय, जजत समाधि प्रगट हो जाय।। ऊँ ह्रीं समाधिगुप्तिजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।83॥
अन्य सहाय बिना जिनराज, स्वयं लेय परमातम राज। नाथ स्वयंभू मग शिवदाय, पूजत बाधा सब टल जाय।। ऊँ ह्रीं स्वयंभूजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।84॥
मदनदर्प के नाशनहार, जिन कदर्प आत्मबल धार। दर्प अयोग बुद्धि के काज, पूनँ अर्घ लिए जिनराज।। ॐ ह्रीं कन्दर्पजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।85।।
गुण अनंत ते नाम अनंत, श्री जयनाथ धरत भगवंत। पूजू अष्टद्रव्य कर जाय, विघ्न सकल जासे टल जाय।। ॐ ह्रीं जयनाथजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।86॥
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