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फूल मनोहर अति सुखदाई, नाना-रंग के प्यारे। गन्ध महा जिन मांहि घनी है, धार सुभग-आकारे।। तिन फूलन की माला करि मैं, भक्ति घनी मन लाई। पूजों सम्यक्चारित मन वच, काय अंग सब नाई।। ओं ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
नानारस मिलवाय बनाये, चरु अति ही सुखदाई। मोदक आदि मनोहर जानो, ज्यों नैवेद्य सुगाई।। सो हम नीके पातन में धरि, विनयसहित पुनदाई। पूजों सम्यक्चारित मन वच, काय अंग सब नाई।। ओं ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक रतन तने करि लीने, घनी ज्योति बहु धारी। कनकथाल भरि निजकर लायो, करन आरती भारी। मन वच तन शुभ भावन से मैं, भक्ति हिये बहु लाई। पूजों सम्यक्चारित मन वच, काय अंग सब नाई।। ओं ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
धूप भली दाहे तन बह्नी, तातें भगति पियारी। नानागंध तिस मांहि मेलि के, कीनी अति सुखकारी।
ऐसे दशधा धूप हाथ ले, अग्नी माहि जलाई। पूजों सम्यक्चारित मन वच, काय अंग सब नाई।। ओं ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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