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जितने अंशों में पैदा हो, उतना ही प्रिय भाई। आयु अन्त लों तहाँ रहे थिर, घट बढ़ हो न कदाई।। ज्ञान अवधि यह जान अवस्थित, सम्यक रूप लहावे।
तातें मैं यह ज्ञान जजत हों, यातें मो ढिग आवे।। ओं ह्रीं श्रीअवस्थितसम्यगवधिज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान उपे जबतें उर, कबहूं घट बढ़ जाई।
अंश बढ़े कबहूं बहु जानो, कबहूं अंश घटाई।। यह अनवस्थित अवधिज्ञान है, सम्यक जुत फल पावे।
तातें मैं यह ज्ञान जजत हों, यातें मो ढिग आवे।। ओं ह्रीं श्रीअनवस्थितसम्यगवधिज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सरलभाव मन विकल्प जाने, कुटिलभाव नहिं जाने। उत्तम सात आठ योजन भव, क्षेत्र काल की जाने।। ऋजुमति मनपर्यय यों जाने, मनचिन्तित प्रिय भाई।
पर मन के विकल्प जो जाने, ताहि जजों सुखदाई। ओं ह्रीं श्रीऋजुमतिमनपर्ययसम्यग्ज्ञानाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
विपुलमती मनपर्यय ज्ञानी, पर के मन को पावे। सरल गूढ़ जो मन के विकल्प, सारे भेद लखावे।। क्षेत्र अढ़ाई द्वीप काल भी, पल्य असंखो जानो।
ऐसे विकल्प जाने पर मन, ज्ञान पूज्य सो जानो। ओं ह्रीं श्रीविपुलमतिमनपर्ययसम्यग्ज्ञानाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
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