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मैं बहुत कमाऊँ, द्रव्य उपाऊँ, सब दिश जाऊँ खेप लई। मो में बुध नीकी, बनज करे की, युक्ति धरे को बात सई।। अँह ही मैं जाऊँ, आदर पाऊँ, नव-निधि लाऊँ, जान हिये। यह 'धन' का मद्दा, जान निषिद्दा, सम्यक् शुद्धा, जजि थुति ये।। ओं ह्रीं धनमदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो रूप हमारो, और न धारो, मोसें हारो, मद जिसो। सुर हू लखि लज्जे, यों छवि छज्जे, बहु कहा कहिज्जे, जान इसो।।
यह 'रूप' मदा है' ज्ञान जुदा है, सम्यक् दाहै आप मई।
तज याको भाई, जजि थुति लाई, सम्यक् पाई मोक्ष सई।। ओं ह्रीं रूपमदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मैं तपसी भारी, शक्ति अपारी, वास धरारी वरष मई। चंचल मन जीत्या, भवभय भीत्या, नहिं तन मीत्या जान भई।। यह ‘तपमद' जानो, अघ को थानो, दोष बड़ानो, कर हानी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई मुनि मानी।। ओं ह्रीं तपोमदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
हम बहु बनवाना, मल्ल समाना, गजमद हाना, जोध सही।
मेरे बल आगे, अरिभय लागे, को मो आगे, धीर कही।। यह 'बल' को मद है, अघ को हद है, सब हित रद है करि हानी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई मुनि मानी।। ओं ह्रीं बलमदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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