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रमणीया वापि बिच है पवित्र, दधिमुखगिरि शिखर बनों पवित्र ।
जिनमन्दिर सुर पूजत सु जाय, हम जजत सु जिन पद शीश नाय ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापिकामध्य दधिमुखगिरि जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
रमणीया वापि मुख कोण जास, रतिकर गिरि शिखर प्रथम प्रकाश । जिनमन्दिर सुर पूजत सु जाय, हम जजत सु जिन पद शीश नाय ॥6॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापिका आग्नेय कोणे रतिकरगिरि जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
रमणीया वापि विदिशा विचार, रतिकर गिरि दूजों शिखर धार।
जिनमन्दिर सुर पूजत सु जाय, हम जजत सु जिन पद शीश नाय।।7।
ऊँ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रम्यावापिका नैऋत्यकोणे रतिकरगिरि जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
वापी सुप्रभा बिच है अनूप, दधिमुख गिरि श्वेत वरन स्वरूप।
जिनमन्दिर सुर पूजत सु जाय, हम जजत सु जिन पद शीश नाय ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभावापिकामध्य दधिमुखगिरि जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
वापी सुप्रभा विदिशा सु आदि, रतिकर गिरि शिखर बनो अनादि । जिनमन्दिर सुर पूजत सु जाय, हम जजत सु जिन पद शीश नाय॥9॥ ऊँ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभावापिकामध्य नैऋत्यकोणे रतिकरगिरि जिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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