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चार चौक सोलह भये, ये क्रोधादि कषाय । इनको हति शिवपुर गये, जजों सिद्ध सुखदाय।।
ऊँ ह्रीं त्रिमिथ्यात्वषोडसकषायप्रकृतिघाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
(गीता छन्द)
अब हास्य रत्यारति, शोक सु भय जुगुप्सा जानिये। स्त्री
पुरुष तीजो नपुंसक, वेद त्रिविध बखानिये।।
ये नों कषाय विनाश कर, इमि मोहनीका क्षय किया।
सो सिद्ध मन वच काय पूजों, शुभोदय अवसर लिया।।
ऊँ ह्रीं नोकर्मरहितसर्वमोहविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।। 5॥
दोहा
त्रस षोडश नव मिल प्रकृति अट्ठाईस बखान। तिन सबही कों अष्टकर, जो पहुंचे शिवथान।। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
दोहा
आयुकर्म योद्धाप्रबल, ताके हैं भट चार। ताको जिअ बन्धन करें, तहां धरत निर्धार।।
(अडिल्ल)
देव आयु के उदय, देवपद पाइये। मनुष्यायु के उदय, मनुष्य कहाइये।। तिर्यंचायुके उदय, तिर्यग्गति में परे। नरक आयु के उदय, नारकी अवतरे।।
दोहा
चारों गति के दुःख सहे, पड़ो कर्मवश जीव। ताको हति शिवपुर गये, पूजों सिद्ध सदीप।। ऊँ ह्रीं चतुःप्रकारायुकर्मविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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