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सो स्त्यानगृद्धि है भाई। इनको हते भये शिवराई।। ऊँ ह्रीं नवप्रकारदर्शनावरणकर्मविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।2।
पाईता छन्द अब कर्म वेदनी मानो, दो प्रकृति तास के जानो। इक साता द्वितीय असाता, सब जीवन जेर कराता।।
दोहा साता सुख आभास हो, दुःख असाता देत।
इनको हति शिवपुर गये, ते पूजों नित हेत।। ऊँ ह्रीं द्विप्रकारवेदनीकर्मविनाशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
दोहा
बीस आठ भट मोह के, बड़े बड़े सरदार। जेर किये जग जीव सब, छोड़त नाहिं गमार।। प्रथम प्रकृति मिथ्यात्व हनि द्वितीय मिश्रमिथ्यात्व। समयमिथ्यात्व तृतीय हनि, तब पायो सम्यक्त्व।।
(अडिल्ल छन्द) चार अन्तानुबन्धी को भेद बखानिये। क्रोध मान अरु माया लोभहिं जानिये।। चार अप्रत्याख्यानरु प्रत्याख्यानके। चार संज्वलन हनि षोडश भट हानि के।
दाहा
प्रथम नाश सम्यक्तव लहि, द्वितीय अणुब्रत ठान। त्रितिय घाति मुनिपद धरे, चौथी हति जिनजान।।
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