SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ जयमाला दोहा मन्दिर मेरु सु सोहनौ, चवथे अचल अनादि। ता सम्बन्धि जिन थान को, नमौ करों अघ वादि।।1।। ।।परमादी की चाल॥ पौहकर अर्घ मझार पूरब मेरु कहा जी। मन्दिर ताका नाम जिन धुनि माहि चया जी।।2।। जाके शीश मझार पांडुक है वन नीका। रचना धरै अपार सुखदायक सबजीका।।3।। ता बन चार अनूप पांडुक शिला कहीजी। अर्धचन्द्र आकार बहु विस्तार लही जी।।4।। मोटी जोजन आठ लंबी सौ लक्ष भाई। चौड़ी है जो पचास जोजन अति सुखदाई।।5।। ता ऊपर सिंहपीठ तीन कहे अति भारी। ता मध कलश हजार आठ रहे शुभकारी॥6॥ मंगल द्रव वसु ज्ञान धूप घटादि सारे। रचना और अनेक जानि अनादि अपारे।।7।। ऐसी सिला अनूप ता ऊपर जिन आवै। बैठि सिंहासन ठाम प्रभु असनान करावै।।8।। इस खंड जे जिन होंय तिनकों इन्द्र सुलावें। ह्यां धर सुर अब आय क्षीरोदधि जल भावें।।9।। कलश सहस वसु आनि सागर से विस्तारा। वसु जोजन त्वंग जानि एते मध्य विचारा।।10। इक जो जन मुख सार ऐसे कलश सुलावें। हाथों हाथ सुदेव हरिके हाथ धरावें।।11। इन्द्र तबै कर लेय जय जय शब्द करावें। जिन शिर एके साथ धारा कलश ढरावै।।12। कर हरि नृत्य थुति गान जिनको घर पहुंचा। तातै एक गिरिराज जगमें तीरथ गा३।13।। तहँ मुनि चारण जाय ध्यान धरै सुध लाई। कर्म काटि शिव लेय तातें तीरथ थाई।।14। इम बहु उपमा धार मंदिर जानौं मेरा। कनक मई सब पीठ त्वंग बड़ा बहु फेरा।।15।। दोहा चौथा मंदिर मेरु जो, सुर खग को आधार। हम यहां तैं, पूजन तनी, भावना भावें सार।।16।। 187
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy