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अथ तृतीय अचलमेरु पूजा
॥ वेसरी छन्द॥ मेरु अचल सम्बंधि जिनाला, सो पूजै सुर खग गुनमाला।
हम तौ सकत हीन हैं भाई, तातें यहाँ थपि भावन भाई।।1।। ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयान्यत्रावतरतावतरत संवौषट् इत्याह्वननम्।
ॐ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयान्यत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयान्यत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम ।
अथाष्टक (अडिल्ल छन्द) नीर निरमलो कनक पात्र धर लायजी। उज्ज्वल सार सुगन्ध मनोहर आयजी।
अचल मेरु सम्बन्ध जिते जिन थानजी। पूजों भक्त बढ़ाय फलै भव हानजी॥1॥ ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन चारु सुगंध अगर मिलवाय जी। प्राशुक पानी लाय घस्यो थुति गायजी।। अचल मेरु सम्बन्ध जिते जिन थानजी। पूजों ताफल भव आताप मिटावजी।।2।।
ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत अखंड अनूप गंध धारी सही। धवल रंग मुकता फलसे पुन की सही।। अचल मेरु सम्बन्ध जिते जिन थानजी। पूजों ता फल अक्षय पदकों पायजी।।3।।
ॐ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
फूल कलप वृक्ष सार गंध दायक सही। कंचन चांदी फुल आपनै कर मही।। अचल मेरु सम्बन्ध जिते जिन थानजी। सो पूजों पद मदन तनौं खय जानिजी।।4।।
ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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