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तीन लोक हितकरन अनूप, बंदत ताहि सुरसुर भूप। चिंतामणि सुरवृक्ष समान, ऋद्धिसिद्धि मंगल सुखदान।। नवनिधि चित्राबेलि समान, जाते सौख्य अनूपम जान।
पारस और कामसुरधेन, नानाविध आनद को देन।। व्याधिविकारजांहिसब भाज, मनचिन्ते पूरे हों काज। भवदधिरोग विनाशक सोय, औषधि जगमें और न कोय।।
निर्मल परम थान उत्कृष्ट, बन्दत पाप भजें अरू दुष्ट। जोनर ध्यावत पुण्य कमाय, जश गावत सब कर्म नशाय।।
कटें अनादिकाल के पाप, भजें सकलछिन में सन्ताप। नरपति इन्द्र फणेन्द्रजु सबै, और खगेन्द्र मृगेन्द्र जु नवै। नित सुरसुरी करें उच्चार, नाचत गावत विविध प्रकार। बहुविध भक्तिकरें मन लाय, विविध प्रकार वादिन बजाय।। दृम दृम दृमता बजे ‘मृदंग' घन घन घंट बजे मुहचंग। झुनझुन झुनझुन झुनियां झुने, सर सर सर सारंगी धुने।। मुरली बीन बजे धुनि मिष्ट, पटहा तूर सुरान्वित पुष्ट। सब सुरगणथुति गावतसार, सुरगण नाचत बहुत प्रकार।।
झननन ननना, नुपूर वान, तननन नना तोरत तान। ताथिइ थिइ थिइ थेई चाल, सुरनाचत नावत निजभाल।।
गावत नाचत नाना-रंग, लेत जहां सुर आनद संग। नित प्रतिसुर जंह बंदतजाय, नानाविध के मंगल गाय।। अनहदधुनि को मोद जु होय, प्रापति वृषकी अतिही होय।
तातें हमको सुख दे सोय, गिरिवर बंदोकर धरिदोय। मारुत मन्द सुगन्ध चलेय, गन्धोदक अँह नित वरषेय।
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