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श्री आदिनाथ, सर्वसिद्धवरकूट (कैलाशगिरि) प्राणी हो आदीश्वर महाराज जी, अष्टापद शिवनाथ हो।
पूजत सुर हरि नर सकल, सो पावे पद निर्वान हो। प्राणी हम पूजत इतही सदा, यह नाशे भवभव भीतिहो।
प्राणी पूजों मनवचकाय कर, अष्टापद से निर्वान हो।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्रादि दशसहस्र मुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्री कैलाशगरि सिद्धक्षेत्रेभ्यः
अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य (मन्दारगिरि)
सोरठा वासुपूज्य जिनराज, चम्पापुर” शिव गये। मनवचजोग लगाय, पूजों पदजुग अध्य ले।। ओं हीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्रादि एकसहस्र मुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्रीचम्पापुरसिद्धक्षेत्रेभ्यः
अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ, ऊर्जयन्तकूट (गिरनार)
दोहा
नेमीश्वर तजि राजमति, लीनो दीक्षा जाय। सिद्ध भये गिरिनारतें, पूजों अध्य चढ़ाय। ओं ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्रादि दिसम्बुप्रद्युम्नानिरुद्धेत्यादि बहत्तरकोडि सात सौ मुनि
सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीमहावीर स्वामी
(सुन्दरी छन्द) वर्धमान जिनेश्वर पूजिये, सकल पातक दर सु कीजिए।
गये पावापरतें मक्ति को, तिनहि पूजत अर्घसंयुक्ति सों।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्रादि षटत्रिंशन्मुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः पावापुरस्थ पद्मसरोवरस्थ सिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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