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दोहापारसप्रभु के नामतें, विघन दूर टरि जाय।
ऋद्धिसिद्धि निधिआनिकें, मिलि है निशदिन आय॥ ओं ह्रीं सुवर्णभद्रकूटतः श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्रादि व्यालीस करोड़ चौरासीलाख पैंतीसहजार सात सौ व्यालीस मुनि सिद्धपदप्राप्तेभ्यः श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति
स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द) जे नर परम सुभावनसों पूजा करें। हरि हलि चक्री होय राज्य षट्खंड करें।। फेरि होंय धरणेन्द्र इन्द्रपदवी धरें। नानाविध सुख भोगि बहुरि शिवतिय धरें।।
इत्याशीर्वादः
अथ समुच्चयपूजा
दोहा
या विध बीस जिनेश के, बीसों शिखर महान।
और असंख्य मुनीश अँह, पहुँचे शिवपद थान।। ओं ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
(गीतिका छन्द) पदमद्रह को नीर निरमल, हेमझारी में भरों।
तृषारोग निवारने को, चरणतर धारा करों।। सम्मेदगढतें मुनि असंख्ये, कर्म हर शिवपुर गये। सो थान परमपवित्र पूजों, तासु फल पुनि संचये।।
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