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रोज षटरस विषें, रसन को त्यागि हैं, नाहिं सबरसा एक बार खावें, मोह बल विषें विनराग चित्तरागि हैं, नाहिं रसनावशी आप आवें। भोग अछरसनतजि, आप भोगी भयो, रैन दिन ध्यानधी मांहिं आने।
जीय के धार व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं रसपरित्यागतपोधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जाहि आसन थकी, धीर तँह थिति करे, तास विधि लों नहीं ठाम क्षोरे । काल जेते तनो, नेम धारें बुधा, वार तो वपू, प्रीति तोरे। देव खगनर पशूकृत जो दुख मिलें, तों हुते धीर दुःखनां हिमाने।
जीय के धार व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तन विषें खेद को निमित जा विध मिले सोहि विध ठानि सम भाव लावे | त्याग तन को किये, व्रत ऐसो बने, मोहवश जीव इह नांहि पाबे||
वीतरागी विना व्रत को सिर धरे, रागजुत जीवतो हारि माने । जीय के धार व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं कायक्लेशतपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
बोल परमादवश, दोषपरणतिविषे तथा चलहलन को, पाप लागे। तास को छेद कारन लहे दंड मुनि, धीरता देखि अघ, नांहिं जागे आप ही आप को, दंड लेते मुनी, धीरता देखि अघ, नांहिं जागे। जीय के धार व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं प्रायश्चिततपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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