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निजपरतिय को शुभत्यागी, सो ब्रह्मचर्य अनुरागी।
ते आचारज सुखदाई, सों पूजों अय चढ़ाई।। ऊँ ह्रीं ब्रह्मचर्यधर्मसहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कड़खा छन्द एक दोय चार षट्, अष्ट दिन पक्ष लगौ, खानपानी तनो त्याग ल्यावे। माह दो एक षट, चारवासी भलो, धीर तजि अशन, उर सासो ध्यावे।। इनहिं आदिकतिको, वास दुद्धर करें, नाहिं परणति विर्षे, खेद आने।
जीय के घोर व्रत धार आचार्य हैं, नमों तिन चरन फल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं अनशनतपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भूखतें अर्ध खावे, तथा भागत्रय, भाग चौथो भखै व्रत्तधारी। एक दो ग्रास ले, भाव समता धरे, तास तें जा अघ सूर हारी।। नाम ऊनोदरी वृत्ति याकों कह्यो, तास के धार गुरु जगत जाने। जीय के घोर व्रत धार आचार्य हैं, नमों तिन चरन फल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं ऊनोदरतपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
धरें जो व्रत तामें महादृढ़ रहे, रोज को तास परमान ल्यावे। तास कूयाद रखि, सकल कारज करे, नेम परमानता विधि निभावे।।
खान अरुपानगमनादि परिमाण ले, वृत्त परिसंख्यान सूर आने।
जीय के धार व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ॐ ह्रीं व्रतपरिसंख्यानतपोधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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