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गीता छन्द ज्ञान दरशनावरण वेदनी, मोह जुत चारों हनी।
आयु नाम रु गोत्रकर्म अन्तराय हर कीनी मनी।। ये आठ कर्म हरि दाहि आतम, आपको पद शुध कियो।
ये भये तीनों लोक नायक, नमों, ध्रुव चाहो जियो।। ॐ ह्रीं अष्टकर्मविनाशकसिद्धेभ्यः महाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
चाल पंचमंगल की तीन लोक त्रय शत तेताली, घनाकार ताके मधि नाली। चौदह राजू त्रस तहां होई, चारों गति रचना मधि सोई।।
अधोभाग नर्क सात बताये, नर तिर्यंच मध्य में गाये। ज्योतिषी भी इस ही में गाये, ऊपर वैमानिक बतलाये।। गाये ऊपर सिधदेव थानक, ऊध्वको फिर सिधशिला।
ता ऊपरें सिधदेव राजे, पवन इकथल में मिला।। ते कर्म कोटि सुवाट जावें, ते सकल इस थल में रहें। रहि हैं अनन्ते काल सुस्थिर, फेरि भवतन ना लहे।। एक एक शिवथानक माहीं, सिद्ध रहें हैं अनन्ता ठाहीं। भिनभिन रहें मिलें नहिं कोई, गुण पर्याय द्रव्य निज सोई।। लोक शिखर पर जाय विराजे, भवसागर से हो निरवारे। सब ही चेतनगुण बहु धारे, सुखमय तिष्ठत कर्म कुजारे।।
जारे जु आठों कर्म भवदा, आठ गुण परकाशये। तिन ज्ञान में त्रयलोक घटपट, आनि के सब भासये।। ते नमों सब सिधचक्र उर धरि, तास फल शिवथल लहों।
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