________________
धर्मचक्र सुर लेय, अगवानी नित संचरें।
अतिशय जिनको जेय, देव करें वश भक्ति कें। ऊँ ह्रीं धर्मचक्रातिशयसहितजिनेभ्यः अध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।13।
मंगल द्रव वसु जान, देव लेय आगे चलें।
अतिशय जिनको मान, देव सहायक भक्ति के।। ॐ ह्रीं वसुमंगलद्रव्यसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥14॥
केवलज्ञान हुये हों भाई, ये चौदह श्रुतज्ञान बताई।
इनमें देव निमित्त बखानों, यातें ये देवोंकृत मानो।। ॐ ह्रीं देवकृतचतुर्दशातिशयसहितजिनेभ्यः महाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।
अष्टप्रातिहार्य वर्णन
(भुजंगीछन्द) कहो प्रातिहार्य वसु हर्षदाई, तहाँ बिरछ अशोक नहीं शोकदाई। लखे तास को शोक हेरो न पावें, ये महागुण जिन बिना नाहिं आवें।। ॐ ह्रीं अशोकवृक्षप्रातिहार्यसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
देव सुरद्रम के फूल ल्यावें, महाभक्तिवशमेघ जयों ते चलावें। मनो ज्योतिषी ध्यान नभ से सुध्यावें, ये महागुण जिन बिना नाहिं आवें।। ऊँ ह्रीं पुष्पवृष्टिप्रातिहार्यसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
1324