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अडिल्ल छन्द अरिहन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु जी। ये ही पन भवतार भव्य अघघाति जी। पूजत सुर नर खगा मुकत फल कारने। तातें मैं भी जजों पाप शठ टारने।।
ॐ ह्रीं अर्हदादिपंचपरमेष्ठिभ्यः महाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अरिहन्त परमेष्ठी पूजा प्रारम्भ
प्रत्येक गुण के पृथक्-पृथक् अध्यं
जन्म के दश अतिशय, चौपाई जनमत दश अतिशय जिन लेय, पूजत सुर नर हर्ष धरेय। नाहिं पसेव होय तन मांहि, सो जिन पूजों अध्य चढ़ांहि।। ऊँ ह्रीं स्वेदरहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।।।
मल नहिं होय तास तन माँहि, निर्मल देह होय सुखदाँहि। यह अतिशय जिनतन में थाँहि, सो जिन पूजों अध्य चढ़ांहि।। ऊँ ह्रीं मलरहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।2।
संस्थान समचतुर जु होय, ओछ घाट कबहुँ नहिं जोय। यह अतिशय जो जन्मत पाँहि, सो जिन पूजों अध्य चढ़ांहि।। ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
वज्रवृषभ संहनन जु होय, अद्भुत महिमा धारें सोय। यह अतिशय जिन जन्मत पाहिं, सो जिन पूजों अध्य चढ़ांहि।। ऊँ ह्रीं वज्रवृषभनाराचसंहननसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
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