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अथ समुच्चय पूजा
( चाल पंचमंगल)
पंच परम गुरु सब सुखदाई, पूजों भावि जन हर्ष बढ़ाई। तिनके पद सुर हरि नित सेवें, पूरब अघवन को धो देवें।
देवें जो अग्नी सकल वन कों, और कहो कहा गाइये । ताके सुफल भव छांडि भवि जन, मुकति रमणी पाइये।। ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठि जिनसमूह ! अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट्। (आह्वानं)
ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठि जिनसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठि जिनसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
अष्टक - चाल (जोगीरासा की)
झारी कनक सुघाट मनोहर, निर्मल नीर भराई ।
जिन सिद्ध अचारज अरु बहुश्रुत धर, साधु जजों हरषाई।। ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन बावन निर्मल पानी, घसि कर लेकर लाई ।
जिन सिद्ध अचारज अरु बहुश्रुत धर, साधु जजों हरषाई ।। ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत नखसिख शुद्ध सुगन्धित नैनन को सुखदाई।
जिन सिद्ध अचारज अरु बहुश्रुत धर, साधु जजों हरषाई।। ऊँ ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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