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(गीतिका छन्द) जे ज्ञान पंचम धारि, पै उपदेश प्रभु नाहीं करें। ते मूककेवलि जानि तिन, पूजन सकल भव अघ हरें।।
यह कथन सामायिक सुपाटी, देख टीका के विषे। पुनि और जैन विशेष श्रुत कर, ठीक बुधि इहठा लिखें।। ऊँ ह्रीं मूककेवलिजिनेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - दोहा पन परमेष्ठी, जिनगिरा, रत्नत्रय वृष येहि। आचार्यदिक मुनि सबै, इन सबको प्रणमेहि।। ये पद सर्व प्रकार ही, पूजित लोक-मँझार। इनका विनय विचार कर, पुनि जयमाल उचार।।
(पद्धरि छन्द) नित नमों परमगुरु आत्मवन्त, जे मूलोत्तर गुण धरण सन्त।
बाबीस परीषह सहत शूर, गिरिशिर तरुतल सरतीर पूर।। लखिजगत अथिर निज निंदमूल, सुखदुख तृणधन अरि मित्रतूल। निज आतमलीन विरक्त देह, जे मुक्ति-वधू प्रतिधर सनेह।।
जे दोविध संयम धरणधीर, जे द्वादश विधतप तपत वीर। जे त्र्योदश विध चारित्र धारि, ते साधु नमों उर गुण चितारि।। जे मास दोय चव षट प्रजन्त, केश लोंच करें निजकर महंत। जिनके ब्रत मंत्रनतें सु न्हान, जे धर्म शुकल ध्यावत सुध्यान।। जे शास्त्र कमण्डलु मोरपिच्छ, महाकोमल तार खुली जुतुच्छ। लघुमूल्य शरद लागे न जास, संयम कारण राखें जु पास।। जे षटरस त्याग करें अहार, उपशान्त क्षुधा वृषकाज सार।
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