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ऊँ ह्रीं अनन्तदर्शनसुखवीर्याद्यनन्तगुणमण्डितेभ्यः शातिशयकेवलिजिनेभ्यः अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
(ढाल जोगीरासा की) थिति उतकृष्टी कोटि पूर्व में, आठ बरस घट भाई।
बन्ध प्रकृति जे सर्वनाशि इक, सातावेदनि पाई।। सत्त्व प्रकृति पच्चासी को भनि, उदय बियालिस धारी।
लेश्या शुकल ध्यान पद तीजो, परमानंद पदकारी।। आठ लाख पुनि सहस अठानवे, पाँचसै दोय बखाने।
हैं उत्कृष्ट सजोग केवली, तेरहवें गुण ठाने।। जहँ नव क्षायिकलब्धि अधिक हों, दोष अठारह भाने।
सुरकृत गन्धकुटी निर अतिशय, केवलि जिन सो ठाने।। ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनाद्यनन्तगुणमण्डितनिरतिशय केवलिजिनेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
(गीतिका छन्द) सुरनरपशु करके तथा, स्वमेव ही प्रापत भयो। अतिघोर वीर महा उपद्रव, जीत केवलि-पद ठयो।। इक समय में इक बार ही लखि, सकल लोक अलोकने।
उपसर्ग-केवलि-चरम-तन धर, तिनहिं हम पूजन ठने।। ऊँ ह्रीं उपसर्गप्राप्तकेवलिजिनेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
उपसर्ग दुर्धर पाय अन्तमुहूर्त में कर्म घातिया। कर अन्त केवलज्ञान ले पुनि, शेष कर्म विनाशिया।। लहि मुक्ति ज्ञानै अन्तकृत-केवलि परमगुरु गुन भनें। जे एक तीर्थंकर समय जो, होंय दश दश जिन जजें।। ऊँ ह्रीं अन्तःकृत्केवलिजिनेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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