________________
तिनकोठन में शिखर सु गुमटीदार जू, तिनपर कलशा ध्वजा विराजे सार जू।।
कोठन के दरवाजन पै रचना रची, वंदनवार सु बंधी रतन मोतिन खची। घण्टन को पंकति सुन्दर शोभे जहाँ, सुनिके देव सु शब्द नृत्य ठाने तहाँ।
ॐ ह्रीं अष्टभूमौ विविधरचनायुक्त-द्वादशशालप्रकोष्ठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) गनि दिशा ‘आग्नेय' -विर्षे सही, लसत कोठा तीन प्रभू कही।
मुनि सुरीं सु कल्पवासिनि गिनो, तिय मनुष्यन की तीजी भनो।। ॐ ह्रीं आग्नेयदिशि कोष्ठत्रये दिगम्बर मुनि-कल्पवासिनी-मनुष्यनीसंयुक्त
समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिश सु 'नैर्ऋत्य' कोठा तीन जू सुभग ज्योतिषिनी भरि लीन जू।
सुनहिं जिन-वच व्यन्तरसुर-तिया, भवनवासिनी तीजे में लिया।। ऊँ ह्रीं नैर्ऋत्यदिशि कोष्ठत्रय-ज्योतिष्क-वयन्तरणी-भवनवासिनी संयुक्त
समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन कोठा ‘वायव' में कहा, भवनवासी व्यन्तर-सुर लहा।
ज्योतिषी-सुर बैठे सार जू, सुनत जिनवाणी हितकार जू।। ऊँ ह्रीं वायव्यदिशि कोष्ठत्रये ज्योतिष्कभवनव्यन्तर-सुरवास-संयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुभग दिश ईशान विचारिये, लसत कोठा तीन निहारिये। कल्पवासी-सुर-नर देखिये, बारवें तिर्यंच स देखिये।।
1290