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दरवाजे कारण-युत शोभे सार जू, नानाविध के रतन जड़े सुखकार जू। लगे किवर नि हार हरित पन्नामई, झलकें सब चित्राम सुभंग शोभा लई।। ऊँ ह्रीं अनेकरचनायुक्तद्वारसहित-चतुर्थप्राकारसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिनमें शोभे जालबंद रूमी जहाँ, और जाल सुन्दर सु विराजत है तहां। द्वारपाल सुर जान कल्पवासी सही, पुण्यसहित सो खड़े गदा हाथन लही।। ॐ ह्रीं द्वारपालसहितद्वारयुक्त-चतुर्थप्रकारसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
द्वारपाल शिर मुकुट महाशोभ धरे, पद्मरागमणि-जडित कान्ति जगमग करें।
कानन कुण्डलसार हार हृदें लसें, रतन-जडित कर कथा हाथ मुंदरी बसें। पहुँची पहुँचन-माँहि विराजत नग-जड़े, नये वस्त्र तन पहिर सु सुन्दर सुर खड़े।
आभ्यन्तर सुन्दर गिन वेदी पांचई, ताको भी वर्णन ऐसे ही साँचई। ॐ ह्रीं द्वारपालयुक्तद्वारसहित-पंचमवेदिकायुक्त-चतुर्थप्राकारसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
वज्रकोट वेदी सु पांचई जानिये, भूमि आठवीं गली सु नैनन आनिये। गली भूमि बाँई अरु दाहिनी ओर जू, तासु भूमि में चार सुअन्तर जोर जू।। ऊँ ह्रीं वज्रप्राकारपंचमवेदिकायाः अष्टमंगल्याः भूमो उभयपाश्वभूमेः चुरन्तरालसंयुक्त
समवसरण स्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिनमें दो-दो गली-तनी वेदी कहीं, दोय-दोय बिच भीति फटकमय हैं सही।
चार भीति विच अन्तर तीन सु पेखिये, तेई कोठा तीन सु नैनो देखिये।। चार दिशा की सोलह भीति विचारिये, भये सु बारह काठा नैन निहारिये।
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