________________
जय-जय-जय जिन-गुणमाल गाय, जय स्तुति फिर भाषत बनाय। जय सब मिल नृत्य करें सु जान, जय बजत मृदंग सु ताल मान।। मुहचंग-बीन इन आदि साज, सुरताल-सहित निकसे आवाज। जय थेइ-थेइ-थेइ धुनि होत सार, जय सुर-नर-तिय नाचें निहार। जय जिनगुण गावत हरष-धार, बहु पुण्य-बढ़ावत सुर विचार। जय धन्य जन्म तिनको बखान, जय जिन-दर्शन देखत सुजान।। जय सफल जन्म तिनको प्रमान, जिन-पूजि सुपावन तन सुजान। जय एक तूप वर्णन-निहार, जानो इकदिश में नव विचार।।
चारों दिश छत्तिस कहे गाय, सुर-नर पूजत आनन्द पाय। छत्तीस तूप वर्णन विशाल, जय शीश नाय भाषत सु ‘लाल।।
दोहा गली सातवीं चार दिश, तूप सु छत्तीस जान। शुभ-शुभ अक्षर लायकें, पूजा करो बखान।।
ॐ ह्रीं चतुर्दिशसम्बन्धि-षट्त्रिंशत्स्तूपस्थ-जिनेन्द्रेभ्यः पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल्ल जो बाँचे यह पाठ सरस मन लायकें, सुने भव्य दे कान सु मन हरषायकें। धन-धान्यादि-पुत्र-पौत्र-सम्पति बढ़े, नर-सुर के सुख भोग बहुरि शिवतिय वरे।।
॥ इत्यार्शीवादः॥
1287