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(पद्धरि छन्द)
जय जय छत्तीसों तूप जान, जय चारों दिश के कहे मान। जय तिनकों नमन करों त्रिकाल, जय वर्णन भाषे बहु विशाल। जय भूमि सातवीं बीच जान, जय नव-जव चारों दिश बखान।
जय पूरब दिश नव जान तूप जय दरवाजें सोहें अनूप ।। तिनमें इक तूप- तनी सु वर्न, जय भाषत हैं शिव-सौख्य- कर्म। जय तीन पीठ जानो प्रमान, मणिमयी रतनसों जड़े जान|| तिनमें श्रीतूप लसें विशाल, जय लसें सु मोती - रतन - माल। जय जिन-तनतें ऊँची निहार, जय बारह-गुणों हिये विचार।। जय ऊँची शिखर लसे सु जान, तापर कलशा सुन्दर प्रमान । शुभ दण्डधरं सुध्वजा विचार, लहके नभ में आनन्दकार।। जय तिन में तोरण शोभमान, मणिमयी रतनसों जड़े जान जय मोतिन की झालर रसाल, जय जगमग जगमग होत लाल।। जय तिस पर तोरण तीन सार, जय सिंहासन शोभे अपार । जय तिन दुति देख छिपो जु सुर, निकसी द्युति दश-दिश रही पूर।। जय तिन पर राजत जिन सु देव, जय-जय अरिहन्त जु सिद्ध देव ।
इनकी प्रतिमा जानो विचार, भवि जीवन को आनन्दकार || जय तिनसु शीश पर छत्र तीन ‘त्रिभुवन के पति' भाषत प्रवीन। जय वसुविध मंगलद्रव्य आन, जय राजत मंगल की सु खान
जय देवी-देव तहाँ अपार, वैताढ्य - तने नर बहु विचार। जय वसुविध द्रव्य जु सार लाय, जय पूजत श्रीजिन के सुर पाय ।।
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