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चाह सहस अरु तीन सौ बीस अधिक सब जान।
महाध्वजा चारों दिशा भाखीं श्री भगवान्।। ॐ ह्रीं पंचमभूमौ चतुर्दिशासु 4320 महाध्वजासंयुक्त समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(सुन्दरी छन्द) सब ध्वजा गिनियो मन-लायकें लाख चार कही जिन गायकें।
सहस सत्तर वसु सौ जानिये गिन सु अस्सी ऊपर मानिये।। ऊँ ह्रीं पंचमभूमौ चतुर्दिशासु 470880 ध्वजासंयुक्त समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक-थम्भ ध्वजा के पेखिये सहज सुन्दरता कर देखिये।
वृषभजिन के थम्भ जु सार जू गिन अठासी अंगुल धारजू।। ऊँ ह्रीं वृषभजिनस्य अष्टाशीत्यंगुलप्रमाण-सुवर्णमयध्वजा-स्तम्भसंयुक्त समवसरणस्थित
जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तासु ऊपर दण्ड सु मणिमयी धनु पचीस सु अन्तरता लई। सहस लहकत ध्वजा सु जानिये करत नृत्य मनों उर आनिये।। ऊँ ह्रीं पंचभूमौ ध्वजासमूहसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(भुजंगप्रयात छन्द) बनी भूमि सुन्दर ध्वजा की सु जानो, तहां ताल-वापी-सु पर्वत बखानो।
बनी सार सुन्दर लसैं पैरकारी, करें देव क्रीड़ा धरें कान्ति भारी॥ वहाँ वृक्ष जानो फले फूल मानों, झुकी डार आनो भली शोभ-धारा। मनो कल्पवृक्षं सु सोहे प्रतक्षं, लेखे सौक्ख अक्षं क्षुधा-दोष टारा।।
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