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ज्यों मेघ-घटा को देख मोर नाचत ऐसे सुर-नर सु जोर।। जय हाथ जोर सनमुख सुरेश जिनराज-छवी देखें विशेष।
दो नैनन तृप्तभयो न इन्द्र तब सहसनेत्र रचियो सुरेन्द्र।। जय फिर-फिर जिनको नमस्कार कर गावत जिनगुण हरषधार। वह समयो जिन देखो विशाल धनि जीव कहें जिनकों सु 'लाल'। जय या विध पूजत हैं त्रिकाल जय-जय जिन-चरनन नमत भाल।
जय एक अशोक सु वृक्ष-सार ताको वरनन भाषो विचार।। __ ऐसे ही चारों भूप-वृक्ष पूजत मिलिके सुर-नर-प्रतक्षा
श्रीजिनमहिमा-वर्णन अपार कवि कौन लहे ताको सु पार।।
पर तुच्छबुद्धि हमने सु पाय जय-जय-जय जिनगुण कहे गाय। उपदेश दियो सब सुख जु राय कवि 'लाल' भक्त बलि-बलि सुर जाय।।
दोहा
चौथी उपवन-भूमि की पूजा अरु जयमाल। जो बाँचे मन-लायके पावे शिवपद हाल।। ऊँ ह्रीं चतुर्थदिशासम्बन्धि-चतुर्थोपवनभूमिवृक्षस्य-जिनप्रतिमाभ्यः
पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल्ल जो बाँचे यह पाठ सरस मन लायके, सुने भव्य दे कान सु मन हरषायके। धन-धान्यादि पुत्र-पौत्र-सम्पत्ति बढे, नर-सुर के सुख भोग बहुरि शिव-तय वरे।।
इत्याशीर्वादः।
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