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पत्र पन्ना के रंग जानिये, लाल फूल खिले परमानिये।
फल महारमणीय सुहावने, झुक रहे सु सरस मनभावने।। ॐ ह्रीं चतुर्थभूमौ विविधशोभायुक्ताशोकवृक्ष संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(भुजंगी छन्द) लखो सार विदिशा-विर्षे वृक्षसारं, गनी भूप-वृक्षं सुशोभा अपारं। लसें चार वन नाम ऊपर सु भाखे, सोई भूपवृक्ष भले इन्द्र राखे।। लसें सार शोभा सु देखो निहारी, भजें पाप ताके लहे सौख्य भारी।
करे देव पूजा भलीभाँति भाई, जजें लाई जी धन्य नर सो कहाई।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ चतुर्वनेषु चतुर्भूपवृक्षशोभा संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अशोक वृक्ष पूजा प्रारम्भ
(सुन्दरी छन्द) वन अशोक महाछवि देत है, सकलजीव तनो सुख-हेत है।
भूपवृक्ष अशोक सुहावनो, जिन सुपूज परमसुख पावनो।। ऊँ ह्रीं अशोकवृक्षस्य जिनप्रतिमाः अत्रावतारावतरत संवौष्ट। (आह्वान)
ऊँ ह्रीं अशोकवृक्षस्य जिनप्रतिमाः अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं अशोकवृक्षस्य जिनप्रतिमाः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्।
(सन्निधिकरणम्)
अष्टक (गीता छन्द) द्रहनीर निर्मल परम पावन, कनक-झारी में भरों। जिनराज-चरण-प्रक्षाल भविजन, जन्म-मरण-व्यथा हरों।।
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