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जान तरु 'सीताफल' सोहने, 'जायफल' 'बादाम' सु मोहने।
और वृक्ष अनेक सु जानिये, बीच में बंगला परमानिये।। ॐ ह्रीं तृतीयभूमौ अनेकरचनासंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(भुजंगप्रयात छन्द) सुनों रौंस की चार विदिशा जु माँही, बनी वापिका ताल सुन्दर सुहायीं।
बनी सार बैठक सु गौंखें विराजे, लसें तुंग कलशा ध्वजा सार छाजें।। ऊँ ह्रीं तृतीयभूमौ सीमचतुर्विदिशासु वापिका-सरोवर-संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लसें सार झालरि बंधी रत्नमाला, धरै कान्ति भारी सु सुन्दर विशाला।
भरो नीर उज्ज्वल मनो दूध-धारा, रलें 'कुन्ज' के फूल सुन्दर अपारा।। ऊँ ह्रीं तृतीयभूमौ वापी-सरः-संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तहां रत्न मणिमय बनी पैरकारी, रही वृक्ष की झूमि शाखा विचारी।
तलें सार सुन्दर शिला शुद्ध सोहें, विराजे मुनी तास पै भव्य मोहें।। ऊँ ह्रीं तृतीयभूमौ वापिका-प्रमुखस्थल-विराजित-संयमिसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धरें जोग भारी अनागार धारी, वरें मुक्तिनारी सु सोहै शिला-पै।
चले भव्य आ मुनीधर्म गावें, भले भव्य धावें सुने धर्म ता-पै।। ॐ ह्रीं तृतीयभूमौ धर्मवृष्टिकारकदिगम्बरमुनिसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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