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तासु बीच में पीठ तीन, जे शिखरबद्ध मण्डप सु कीन ||
तापर कलशा अरु ध्वजा जान, जय जगमगात आनन्द-खान। जय आभ्यान्तर-मण्डप सु सार, जय तीन पीठ शोभे निहार ।।
जय तापर गन्धकुटी अनूप, जय सिंहासन सोहे सुरुप । जय तापर कमल विराजमान, जय सहसपत्र ताके प्रमान ॥ मणिजड़ित सु ज्योति जगी अपार, मनु पूरब दिश रवि-उदय सार। जय तापर श्री अरिहन्त देव, शिर तीन छत्र शोभे स्वमेव ॥ जय राजत जिन बहु विभौ धीर, जय तिनकों मेरो नमन वीर । जय रतनमाल मोती सु माल, लटके शोभा दीखे विशाल ॥
जय इन्द्रदेव चारों प्रकार, जय पूजे जिनवर हरष धार। जय वसुविध पूजा करें सार, जय थेइ थेइ थेइ आरति उतार।। जय नचें देव-देवी अपार, बाजत समाज आनन्दकार । जय सुन-नर विद्याधर महान्, जय जिन-गुणगान करें महान् । जय नानाविद्य चित्राम सार, बनि रहे सु जगमग ज्योतिकार।।
कहुँ तेरह द्वीप-तनो प्रमान, कहुँ ढाई द्वीप-तनो सुजान।। जय चौ-शत अठवन भवन पेखि, बनि रहे चित्र नयनन सु देखि। जय-जय तुम देव दयानिधान, कवि कौन करे ताको बखान।। गणधर थुति करत हिये विचार, जपते तुम गुण पावत न पार। जय तुच्छबुद्धि मेरी निहार, बुद्धिमन्त लोग लीजो सुधार ।। उपदेश दयो सब सुख जुराय, कवि 'लाल' जीत भाष बनाय।
दोहा
जिनमन्दिर भूमि की कही आरती गाय। जो नर बाँचे भाव-सो होय सु मंगलदाय।। ऊँ ह्रीं चतुर्दिशा चैत्यभूमिमन्दिरस्थजिनबिम्बेभ्यः पूर्णाघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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