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कमल-कुन्द-गुलाब सु लाइये, मदन-नाश सु हर्ष उपाइये। त्रिविध योग सु उज्ज्वल हूजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मोदक व्यंजन साजहीं, छुधारोग सु देखत भाजहीं। त्रिविध योग सु उज्ज्वल हुजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये।। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप मणिमय जगमग जोति है, मोहनाशि स जै-जै होति है।
त्रिविध योग सु उज्ज्वल हूजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये।। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगरु-कुमकुम-गंध मिलावहीं, खेय कर्म सु अष्ट जरावहीं।
त्रिविध योग सु उज्ज्वल हुजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये।। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल सु उत्तम सुन्दर ले धरों, जिनसु पूजत शिवनारी वरों।
त्रिविध योग सु उज्ज्वल हजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये।। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
धरत भव्य सु अध्य बनायकें, सफल करत सु नरभव पायके।
त्रिविध योग सु उज्ज्वल हूजिये, थम्म-मानस दक्षिण पूजिये।। ऊँ ह्रीं दक्षिणदिशि मानस्तम्भ-स्थित-जिनेन्द्रेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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