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(सवैया इकतीसा छन्द) भूमि चैत्य परसाद प्रथम सु वेदी जान, भूमि खातिका-प्रमाण दूजी वेदी मानिये।
पुष्पवाटिका सु भूमि आठों कोट सु, चौथी उपवन भूमि तीजी वेदी ठानिये।। पांचई ध्वजा सु भूमि कोट तीसरो निहार, कल्पवृक्ष भूमि छठी वेदी चौथी मानिये। सातई सु भूमि मन्दिरन को सु चौथा कोट, फटिक केरंग आठों सभाभूमि जानिये।।
(अडिल्ल छन्द) चार कोट अरु वेदी पांच प्रमानिये, एक तरफ के दरवाजे नव जानिये। चार दिशा के छत्तिस दरवाजे कहे, शो| परम विशाल कान्ति कर लहलहे।। ऊँ ह्रीं चतुर्दिक्षु चतुर्दुर्ग-पंचदिका-षट्-विंशद्-द्वारसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
प्रथम कोट अरु वेदी प्रथम निहारिये, तिन द्वारन में गली सु प्रथम विचारिये।
ऐसे ही दरवाजे और सु जानिये, तिनके बीच गली को भूमि प्रमानिये।। ऊँ ह्रीं प्रथमदुर्ग-प्रथमवेदिकाद्वाराणां मध्ये प्रथमवीथिकाभूमिभिन्नद्वाराणां मध्ये द्वितीयादिवीथिकाभूमि संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ भूमि-सम्बन्धी आठ गली सही, पार्शवन-विर्षे फटक-निर्मित वेदीं कही। ___ तिनके दरवाजे सु कपाट लगे तहां, चमचमात सुखकार लगे हीरा जहां।। ऊँ ह्रीं अष्टभूमिसम्बन्धिनीनाम् अष्टवीथिकानाम् उभयपाश्व-अनेकव्रजमय-कपाटयुक्त स्फटिकनिर्मित-वेदिकाद्वार संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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