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(अडिल्ल छन्द) चौंढ़ी वेदी जान धनुष उर धार जू, गनी सार्ध-शत चाप बहुत सुखकार जू।
वेदी गली सु जान लम्बाई एक-सी, तेइस के क्रम-हानि जान लीजो सही।। ऊँ ह्रीं अन्तिम-त्रयोविंशति-तीर्थंकराणाम् यथागम-क्रमहीन-वेदिका संयुक्ते समवसरणे
स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार गलिन के बीच चार अन्तरपरे, चार कोटि अरु वेदी पांच बने खरे। इन नव के अन्तर वसु भूमि निहारिये, मिला अन्त में 'धूलीसाल' विचारिये।। ऊँ ह्रीं चतुर्वीथिकानां मध्ये अन्तरालभूमौ चतुर्णा दुर्गाणां पंचानां वेदिकानाम् अन्तरालेऽष्टानां भूमि-शिलानां पर्यन्ते 'धूलिशाल दुर्गे' च संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय
अयं निर्वपामीति स्वाहा।
वेदि कोटि में इतनो फरक विचरिये, वेदी भीत-समान सु मन में धारिये। कोट-तले चौड़ों सु घाट ऊपर लह्यो, गनो चौगुनो ऊँचो जिन-तन तें कह्यो।।
ऊँ ह्रीं जिनदेहाच्चतुर्गणोच्च-भित्तिकाममसमायताभिः पंचवेदिकाभिः उपर्युपरि क्रमहीनायामोच्चदुर्गेश संयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेदी पांचों कंचनवर्ण सु जानिये, बने कंगूरा मन्दिर-ऊपर मानियो। फहरे ध्वजा विशाल ओर रचना घनी, वर्णन का कवि सरस शोभा बनी।। ॐ ह्रीं कंगूरा-मन्दिर-ध्वजा-सुशोभिताभिः कंचनवर्णपंचवेदिकाभिः संयुक्ते समवसरणे
स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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