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राग-द्वेष-भय-शोक-क्षुधा-चिन्ता धनी। व्याधि-बुढ़ापो-जनम-मरण-निद्रा घनी।। मोह-पसीना-खेद सु भद-आरति हनी। विस्मय-तृषा न जानि जानि त्रिभुवनधनी।।
ॐ ह्रीं श्री अष्टादशदोषरहित-जिनेन्द्रेभ्यः महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द) ज्ञानावर्ण के गये ज्ञाननान्त पाय जू, नशे दर्शनावरण दर्श नान्त पाय जू।। मोहकर्म क्षय हुये परमसुख पाय जू, वीर्य अनन्तो भासि नाश अन्तरायजू।।
(दोहा छन्द) समवसरण-लक्ष्मी-सहित चौबीसों जिनराय। जिनके गुण छियालीस शुभ सुनो भविक मनलाय।।
(पद्धरि छन्द) जय चौबीसों जिनराज देव जय सुर-नर मिल नित करत सेव। जय जन्म हि दश-गुण धरत ईश जय तिनकों सुरपति नमत शीश।। तन रहित-पसीना-मल न जान उज्ज्वल सुदुग्ध-सम रुधिर मान।
समचतुर धरें संस्थान देह तन वज्रमयी शोभित सु एह।। सुन्दर सु जगत में और नाहिं शुभ-गंध अधिक वपु-जिन सु माँहि। इक सहस आठ लक्षण जु सार पर कों हितकारी-वचन धार।। जब बल जु अनन्त धरे शरीर दश अतिशय जानो भविक वीर। जय केवल उपज्यो जगत देव दश अतिशय प्रापति भई एव।। दुर्भिक्ष न वसु सौ कोश जान जब चले गगन में इह प्रमान। वध जीव न कबहूँ होय सार आहार-सहित जिनवर विचार।।
उपसर्ग न जिनकों होय धीर चतुरानन-दर्शन कहो वीर। सब विद्या के ईश्वर महान् वपु छाया-रहित यद्यपि महान्।।
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