________________
तुम भ्रमतम-भंजन मुनि-मन-कंजन, रंजन गंजन मोह-निशा। रविकेवलस्वामी दीप जगामी, तुमढिग आमी पुण्य-दृशा।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
दश-धूप सुरंगी गंध अभंगी वह्नि वरंगी-माहिं हवै। __ वसुकर्म जरावें धूम उड़ावें, तांडव भावे नृत्य पवै।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमाल।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभालं।। 7।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
रितुफल अतिपावन, नयन-सुहावन, रसना-भावन, कर ली। तुम विघन-विदारक, शिवफल-कारक, भवदधि-तारक चरचीनें।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरु।
वर दीपं धूपं, आनंदरूपं, ले फल-भूपं, अर्घ करूँ।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभालं।। 9।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
1150