________________
भव-ताप-नशावन, विरद सुपावन, सुनि मनभावन, मोद भयो। तातें घसि बावन, चंदन-पावन, तुमहिं चढ़ावन, उमगि अयो।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 2।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
तंदुल अनियारे, श्वेत सँवारे, शशिदुति टारे, थार भरे। पद-अखय सुदाता, जगविख्याता, लखि भवत्राता पुंज धरे।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
सुरतरु के शोभित, सुरन मनोभित, सुमन अछोभित ले आयो। मनमथ के छेदन, आप अवेदन, लखि निरवेदन गुन गायो।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
नेवज सज भक्षक प्रासुक अक्षक, पक्षक रक्षक स्वच्छ धरी। तुम करम-निकक्षक, भस्म कलक्षक, दक्षक पक्षक रक्ष करी।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमाल।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभालं।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
1149