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मणिमय कंचन जडित, दीप अति सोहने। बहु सुगन्ध नहीं धूम, लखत मनमोहने।। तिमिरविनाशक दीपक, ले पूजों सदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारन सदा।।
ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन अगर कपूर, आदि दश कूटकें। सुरभिसार अलि, मत्त जुरे कर टूटके।। धूप दहन में खेत, कर्म अरि हों विदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।।
ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
खारक दाख लवंग, लायची आनिये। श्रीफल वर बादाम, जायफल जानिये।। ये फल दुषणरहित, मुक्ति-फल हेतदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।।
ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
वारि सुगन्ध सुरत्न, पहुप उरु धोयके। दीपधूपफल वसु, विधि अर्घ सँजोयके।। या विधि अर्घ सँजोय, स्वपर हित ज्ञानदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।।
ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तत्त वितत घन सुषिर, साजि वाजिन सवै। मंगलगीत उचारि, नारिनर मिल तवै।। शुचिकर सब श्रृंगार, जजों विधि से तदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।।
ॐ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गाथा अट्टावर्याम्म उसहो, चम्पाए वासुपुज्जजिण्णाहो। उज्जते णेमिजिणो,
पावाए णिव्वुदी महावीरो।
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