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जघन्य प्रकारे धरै भेद ये ही, मुहूर्त वसू नामगोतं गने ही। तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्तं धरै थित्ति गाय।।
तथा वेदनी बारहे ही मुहूर्त, धरै थित्ति ऐसे भन्यो न्याय जुत्तं। इन्हें आदि तत्त्वार्थ भाख्यो अशेषा, लह्यो फेरि निर्वाण माहीं प्रवेशा।।
अनन्तं महन्तं सुसन्तं सुतन्तं, अमन्दं अफन्दं अनन्दं अभन्तं। अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं।। अवर्णं अघणं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशण। अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं तदेकं।।
सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्म, अनन्तं गुनाराम जैवन्त धर्म। नमैं दास 'वृंदावन' शर्न आई, सबै दुःख मोहि लीजै छुड़ाई।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
तुव सुगुन अनन्ता, ध्यावत संता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा। सतमतकर चंडा भविकज मंडा, कुमति कुवलइन गन हंडा।।
।इत्याशीर्वादः शांतये त्रय शांतिधारा॥
[पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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