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चैत-शुकल-ग्यारस कहँ जानों, जनमें सुमति सहित त्रय-ज्ञानों।
मानों धरयो धरम-अवतारा, जजौं चरन-जुग अष्ट-प्रकारा।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
चैत-शुकल-ग्यारस तिथि भाखा, ता दिन तप-धरि निजरस चाखा।
पारन पद्म-सद्म पय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां तपोमंगल- मंडिताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
चैत- शुकल-एकादशि हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने।
समवसरन-मँह कहि वृषसारं, जजहुँ अनंत-चतुष्टयधार।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत-सुकल-ग्यारस निरवानं, गिरि-समेदतै त्रिभुवन मान। गुन-अनंत निज निरमलधारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
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