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जय भोग भुजंगा विषय जान, अरु है वे ये सब नर्क खान। सब अथिर लखां संसार आप, अरु होता जिसमें नित्य पाप।।3।।
सब छोड़ चले गुरुवर महान, कदली तरुवर संसार जान। जय पंच महाव्रत धरत धीर, जय पंच समिति पालत सुवीर।।4।। जय इन्द्रिय पांचों विजय कीन, षट आवश्यक उर धर सुलीन। जय सप्त शेष गुण आप धार, ये गुण अट्ठाविस पाल सार।।5।।
जय शीत कान सरनदियां तीर, अरु चौहट बैठे ध्यान धीर। जब चले हवा ठंडी दुखार, गुरु लगे वपु नहीं मन बिगार।।6।। __ग्रीषम में पर्वत आप जाय, वर्षा ऋतु में है तरु सुहाय। द्वावीस परीषह सहत आप, नहीं कष्ट करे धर आत्म जाप।।7।। तब शत्रु मित्र में एक भाव, मणि कंचन कांच सु सम स्वभाव। जय पितृवन अरु महल देख, नहि पूज अपूजक द्वेष नेक।।8।।
जय काम विभंजन आप सूर, गुण गावे हम नहि होत पूर। संसार भ्रमण से दो छुड़ाय, जय गुरुवर तुम हो जगत राय॥9॥ जय स्वपर कल्याण हो महान, संग त्याग दिया चतुवीस जान। जय आर्तरौद्र द्रय ध्यान छोड़, जय धर्म शुक्ल में मनसु जोड़।।10।
जय अन्तर बाहर तप तपन्त, जय द्वादश विधि ये कहत सन्त। उपसर्ग अनेकों सहत आप, जय धार हृदय में क्षमा चाप।।11॥
जय साधु महागुण आप धार, तप करे बरे हो मुक्ति नार। हम चरण शण में आय आय, सूरजमल वन्दे शीष नाय।।12।।
घत्ता
जय जय रिषि राजा भव भय भाजा शिव के काजा आपवरं।
हम गुण गावे शीष नवावे शिव फल पावे नष्टकरं।।
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