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तुम तो सहज पवित्र यही निश्चय भयो | तुम पवित्रता-हेत नहीं मज्जन ठयो ||
मैं मलीन रागादिक मलतें ह्वे रह्यो | महा मलिन तन में वसु-विधि-वश दुःख सह्यो || बीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गई | तिस अशुचिता-हर एक तुम ही भरहु वाँछा चित ठई || अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोष-रागादिक हरो | तनरूप कारा-गेह तें उद्धार शिव-वासा करो ||६||
मैं जानत तुम अष्टकर्म हनि शिव गये | आवागमन-विमुक्त राग-वर्जित भये ||
पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही | नय-प्रमान तें जानि महा साता लही || पापाचरण-तजि न्हवन करता चित्त मैं ऐसे धरूँ | साक्षात श्रीअरिहंत का मानो न्हवन परसन करूँ || ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तें | विधि अशुभ-नसि शुभबंध तें ह्वे शर्म सब विधि तास तें ||७||
पावन मेरे नयन भये तुम दरस तें | पावन पाणि भये तुम चरननि परस तें ||
पावन मन द्वै गयो तिहारे ध्यान तें | पावन रसना मानी तुम गुण-गान तें || पावन भई परजाय मेरी भयो मैं पूरण धनी | मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण-भक्ति नहीं बनी || धनि धन्य ते बड़भागि भवि तिन नींव शिव-घर की धरी | वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभ भर भक्ती करी ||८||
विघन-सघन-वन-दाहन दहन प्रचंड हो | मोह-महा-तम-दलन प्रबल मारतंड हो ||
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि संज्ञा धरो | जग-विजयी जमराज नाश ताको करो || आनंद-कारण दुःख-निवारण परम-मंगल-मय सही | मोसो पतित नहिं और तुम-सो पतित-तार सुन्यो नहीं || चिंतामणी पारस कल्पतरु एकभव-सुखकार ही | तुम भक्ति-नवका जे चढ़े ते भये भवदधि-पार ही ||९||
(दोहा) तुम भवदधि तें तरि गये, भये निकल अविकार | तारतम्य इस भक्ति को, हमें उतारो पार ||१०||
॥इति अभिषेक पाठ॥