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जलाभिषेक पाठ
जय-जय भगवंते सदा, मंगल-मूल महान | वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमौं जोरि जुग-पान ||
श्री जिन! जग में ऐसो को बुधवंत जू | जो तुम गुण-वरननि करि पावे अंत जू ||
इंद्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी | कहि न सकें तुम गुणगण हे! त्रिभुवन-धनी || अनुपम अमित तुम गुणनि-वारिधि ज्यों अलोकाकाश है | किमि धरे हम उर कोष में सो अकथ गुण-मणिराश है ||
पै निज-प्रयोजन सिद्धि की तुम नाम में ही शक्ति है | यो चित्त में सरधान यातें नाम ही में भक्ति है ||१||
ज्ञानावरणी दर्शन-आवरणी भने | कर्म मोहनी अंतराय चारों हने ||
लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान में | इंद्रादिक के मुकुट नये सुरथान में || तब इन्द्र जान्यो अवधितें उठि सुरन-युत वंदत भयो | तुम पुन्य को प्रेर्यो हरी द्वै मुदित धनपतिसों कह्यो || अब वेगि जाय रचो समवसृति सफल सुरपद को करो | साक्षात श्रीअरिहंत के दर्शन करो कल्मष हरो ||२||
ऐसे वचन सुने सुरपति के धनपति | चलि आयो तत्काल मोद धारे अती ||
वीतराग-छवि देख शब्द जय जय चयो | दे प्रदच्छिना बार-बार वंदत भयो || अति भक्ति-भीनो नम्रचित ह्वे समवसरण रच्यो सही | ताकी अनूपम शुभ-गती को कहन समरथ कोउ नहीं || प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं | नग-जड़ित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ||३||
सिंहासन ता-मध्य बन्यो अद्भुत दिपै | ता पर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपै ||
तीन छत्र सिर शोभित चौंसठ चमरजी | महा भक्तियुत ढोरत हैं तहाँ अमरजी || प्रभु तरन-तारन कमल ऊपर अंतरीक्ष विराजिया | यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया || मुनि आदि द्वादश सभा के भवि जीव मस्तक नाय के | बहुभाँति बारंबार पूजें नमें गुण-गण गाय के ||४||
परमौदारिक दिव्य देह पावन सही | क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं ||
जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे | राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे || श्रम बिना श्रम-जल रहित पावन अमल ज्योति-स्वरूपजी | शरणागतनि की अशुचिता हरि करत विमल अनूपजी || ऐसे प्रभु की शांति-मुद्रा को न्हवन जलतें करें (3) | 'जस' भक्तिवश मन उक्ति तें, हम भानु ढिग दीपक धरें ||५||