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तुमही सब विघ्न-विनाशन हो, तुमही निज-आनंद-भासन हो | तुमही चित-चिंतित दायक हो, जगमाँहिं तुम्हीं सब-लायक हो ||१०||
तुमरे पन-मंगल माँहिं सही, जिय उत्तम-पुन्य लियो सबही | हम तो तुमरी शरणागत हैं, तुमरे गुन में मन पागत है ||११|| प्रभु मो-हिय आप सदा बसिये, जबलों वसु-कर्म नहीं नसिये | तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुत-चिंतन चित्त रतों ||१२||
तबलों व्रत-चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों | तबलों सतसंगति नित्त रहो, तबलों मम संजम चित्त गहो ||१३|| जबलों नहिं नाश करों अरि को, शिव नारि वरों समता धरि को | यह द्यो तबलों हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ||१४||
(घत्ता छन्द) श्रीवीर जिनेशा नमित-सुरेशा, नागनरेशा भगति-भरा | ‘वृन्दावन' ध्यावें विघन-नशावें, वाँछित पावें शर्म वरा || ओं ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) श्री सन्मति के जुगल-पद, जो पूजें धरि प्रीत | ‘वृन्दावन' सो चतुर नर, लहे मुक्ति नवनीत ||
॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्॥
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