________________
श्रावण शुक्ला सप्तमि के दिन, सम्मेद शिखर ने यश पाया |
'सुवरणभद्र' कूट से जब, शिव मुक्तिरमा को परिणाया || ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल- मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |५|
जयमाला
(तर्ज : राधेश्याम)
सुरनर किन्नर गणधर फणधर, योगीश्वर ध्यान लगाते हैं | भगवान् तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीश्वर गाते हैं ||१||
ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दुःख उनके पास न आते हैं | जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट कट जाते हैं ||२|| तुम कर्मदली तुम महाबली, इन्द्रिय सुख पर जय पाई है | तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समाई है || ३ || तुमने शरीर औ आत्मा के, अंतर स्वभाव को जाना है | नश्वर शरीर का मोह तजा, निश्चय स्वरूप पहिचाना है ||४||
मैं भी
द्रव्य-मोह औ भाव मोह, इन दोनों से न्यारे-न्यारे | जो पुद्गल के निमित्त कारण, वे राग-द्वेष तुम से हारे ||५|| तुम पर निर्जर वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर - पानी | आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमानी || ६ || यह सहन शक्ति का ही बल है, जो तप के द्वारा आया था |
जिसने स्वर्गों में देवों के, सिंहासन को कंपाया थ ||७|| 'अहि' का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र स्वर्ग से आया था | ध्यानस्थ आप के ऊपर प्रभु, फण मंडप बनकर छाया था ||८|| उपसर्ग कमठ का नष्ट किया, मस्तक पर फण मंडप रचकर | पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंहासन पर ||९||
तप के प्रभाव से देवों ने, व्यंतर की माया विनशाई | पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आई ||१०|| उपसर्ग का आतंक तुम्हें, हे प्रभु! तिलभर न डिगा पाया | अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया || ११||
40