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अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन फुलवारी महकाई | जितना-जितना उपसर्ग सहा, उतनी-उतनी दृढ़ता आई ||
मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ |
चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ || ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।।
जय पाकर चपल इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली | अपरिग्रह की आलोक शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली ||
भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ |
इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ || ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र क्षधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
अपने अज्ञान अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा | व्यन्तर विक्रियाधारी था पर, तप के उजियारे से हारा ||
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ |
जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ || ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलाई है | जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल गंध उड़ाई है ||
मैं कर्म बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ |
वसु कर्म दहन के लिये तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ || ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
तुम महा तपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये | तप के फल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कंपाये ||
ऐसे उत्तम फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ |
ऐसा शिव सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ || ओं ह्रीं श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्र मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
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