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श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा(कविश्री युगलजी)
केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर |
उस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन || सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण |
उन देव-परम-आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)।
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठः! (स्थापनम्)। ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)।
इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया | यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ||
मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ |
अब निर्मल सम्यक्-नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है | अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है || प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है |
संतप्त-हृदय प्रभु! चंदन-सम, शीतलता पाने आया है || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल हूँ कुंद-धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किंचित् भी | फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही ||
जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया |
निज शाश्वत अक्षय निधि पाने, अब दास चरण रज में आया || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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