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________________ जहँ रंगभूमि गिरिराज पर्म, अरु सभा ईस तुम देव शर्म ।१०। अरु नाचत मघवा भगति रूप, बाजे किन्नर बाजत अनूप । सो देखत ही छवि बनत वृंद, मुख सों कैसे वरनें अमंद ।११। धन घड़ी सोय धन देव आप, धन तीर्थंकर-प्रकृति प्रताप । हम तुमको देखत नयन-द्वार, मनु आज भये भव-सिन्धु पार ।१२। पुनि पिता सौंपि हरि स्वर्ग जाय, तुम सुख-समाज भोग्यो जिनाय । फिर तप धरि केवलज्ञान पाय, धरमोपदेश दे शिव-सिधाय ।१३। हम शरणागत आये अबार, हे कृपासिन्धु गुण-अमल धार । मो मन में तिष्ठहु सदा-काल, जब लों न लहूं शिवपुर रसाल ।१४। निरवाण-थान सम्मेद जाय, 'वृन्दावन' वंदत शीस-नाय । तम ब दःख-दंद-हरण, ता तें पकरी यह चरण-शरण ।१५। (घत्ता छन्द) जय जय सुख-सागर, त्रिभुवन-आगर, सुजस-उजागर पार्श्व-पती । 'वृंदावन' ध्यावत, पूज रचावत, शिव-थल-पावत शर्म अती ।१६। ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।। (कवित्त छन्द) पारसनाथ अनाथनि के हित, दारिद-गिरि को वज्र-समान । सुखसागर-वर्द्धन को शशि-सम, दव-कषाय को मेघ-महान ।। तिनको पूजे जो भवि-प्रानी, पाठ पढ़े अति-आनंद आन । सो पावे मनवाँछित-सुख सब, और लहे अनुक्रम-निरवान ।१७। ॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।। 511
SR No.009252
Book TitleJin Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages771
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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