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________________ चैत की चौथि श्यामा महाभावनी, ता दिना घातिया-घाति शोभा बनी। बाह्य-आभ्यंतरे छन्द लक्ष्मीधरा, जयति सर्वज्ञ मैं पाद-सेवा करा।। ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतर्थ्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।४। सप्तमी शुद्ध शोभे महा सावनी, ता दिना मोछ पायो महा-पावनी।। शैल-सम्मेद तें सिद्धराजा भये, आपको पूजतें सिद्ध-काजा ठये।। ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा 141 जयमाला (दोहा) पार्श्व परम-गुनराशि हैं, पार्श्व कर्म-हरतार । पार्श्व शर्म-निजवास दो, पार्श्व धर्म-धरतार ।। नगर-बनारसि जन्म लिय, वंश-इक्ष्वाकु महान । आयु वरष-शत तुंग तन, हस्त सु नौ परमान ।२। जय श्रीधर श्रीकर श्रीजिनेश, तुव गुण-गण फणि गावत अशेष । जय-जय-जय आनंदकंद चंद, जय-जय भवि-पंकज को दिनंद ।३। जय-जय शिव-तिय-वल्लभ महेश, जय ब्रह्मा शिव-शंकर गनेश । जय स्वच्छ चिदंग अनंग-जीत, तुम ध्यावत मुनि-गण सुहृद-मीत ।४। जय गरभागम-मंडित महंत, जग जन-मन-मोदन परम संत । जय जनम-महोच्छव सुखद धार, भवि सारंग को जलधर उदार ।५। हरि गिरिवर पर अभिषेक कीन, झट तांडव-निरत अरंभ दीन । बाजन बाजत अनहद अपार, को पार लहत वरणत अवार ।६। दृम दृम दृम दृम दृम दृम मृदंग, घननन नननन घण्टा अभंग। छम छमछम छमछम छुद्र घंट, टमटम टमटम टम टंकोर तंट ।७। झननन झननन नूपुर ऑकोर, तननन तननन नन तान शोर । सनन नन ननननन गगन माँहिं, फिरि फिरि फिरि फिरकी लहाँहिं ।८। ता-थेइ थेइ थेइ धरत पांव, चटपट अटपट झट त्रिदिश-राव। करके सहस्र-कर को पसार, बहुभाँति दिखावत भाव प्यार ।९। निज-भगति प्रगट जित करत इन्द्र, ता को क्या कहिं सकिहें कविन्द्र । 5101
SR No.009252
Book TitleJin Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages771
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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