SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3. दीघनिकाय के सामण्णफल सुत्त में भ. पार्श्वनाथ के चार व्रतों (चातुर्याम धर्म) के सन्दर्भ हैं। डॉ. जैकोबी कहते हैं कि “यह भाग विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह दर्शाता है कि भगवान् पार्श्वनाथ के समय और उपदेशों से सम्बन्धित जैनों के पुराने रिवाजों से भी बौद्ध परिचित थे ।" 4. मक्खली गोसाल मानव जाति को छह भागों में बाँटता है । तीसरा भेद निगन्थ संप्रदाय है। जैकोबी कहते हैं कि एक नये सम्प्रदाय को मानव जाति के विभाग में इतने महत्त्वपूर्ण स्थान पर नहीं रखा जा सकता था । 5. निर्ग्रन्थ पिता के अनिर्ग्रन्थ पुत्र सच्चक के साथ बुद्ध का मतभेद था। जैकोबी के अनुसार यह तथ्य निर्णायकरूप से सिद्ध करता है कि जैन बौद्धधर्म की शाखा नहीं है । 6. बौद्ध ‘धम्मपद’ में (ङ्क. 422) पहले और अन्तिम तीर्थङ्करों, ऋषभ और महावीर का क्रमशः उल्लेख है। 7. बौद्ध विद्वान् आर्यदेव जैनधर्म के वास्तविक संस्थापक के रूप में ऋषभदेव का उल्लेख करते हैं । I 7. अब यहाँ पर स्वयं जैन ग्रन्थों के भी प्रमाण द्रष्टव्य हैं डॉ. जैकोबी कहते हैं, “ अनेक वर्गों के लोगों की संग्रहीत परम्पराओं को अर्थहीन असत्यों की बुनी हुई जाली की तरह खारिज करने के लिए कोई तर्कपूर्ण आधार उपस्थित नहीं है। उनकी प्राचीनता से सम्बन्ध रखनेवाली सभी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ और प्रसंग लगातार इतने महत्त्वपूर्ण ढंग से संग्रहीत हैं कि उन्हें तब तक ठीक ढंग से निरस्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि जैनधर्म की प्राचीनता पर सन्देह रखनेवाले विद्वानों के द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य की अपेक्षा अधिक मजबूत साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किये जाते ।” उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर 13
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy