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मंगसिर शुक्ल एकादशी पावन, स्वामी दीक्षा करते धारण । दो दिन का धरा उपवास, वन में ही फिर किया निवास ।।
तीसरे दिन प्रभु करे विहार, नन्दिषेण नृप वे आहार ।। पात्रदान से हर्षित होकर, अचरज पाँच करें सुर आकर ।। मल्लिनाथ जी लौटे वन ने, लीन हुए आतम चिन्तन में । आत्मशुद्धि का प्रबल प्रमाण, अल्प समय में उपजा ज्ञान ।। केवलज्ञानी हुए छः दिन में, घण्टे बजने लगे स्वर्ग में ।।
समोशरण की रचना साजे, अन्तरिक्ष में प्रभु बिराजे । विशाक्ष आदि अट्ठाइस गणधर, चालीस सहस थे ज्ञानी मुनिवर । पथिकों को सत्पथ दिखलाया, शिवपुर का सन्मार्ग बताया ॥
औषधि-शास्त्र- अभय- आहार, दान बताए चार प्रकार । पंच समिति और लब्धि पाँच, पाँचों पैताले हैं साँच ॥
षट् लेश्या जीव षट्काय, षट् द्रव्य कहते समझाय ॥ सात त्त्व का वर्णन करते, सात नरक सुन भविमन डरते ।।
सातों नय को मन में धारें, उत्तम जन सन्देह निवारें ।। दीर्घ काल तक दिए उपदेश, वाणी में कटुता नहीं लेश ।।
आयु रहने पर एक मान, शिखर सम्मेद पे करते वास । योग निरोध का करते पालन, प्रतिमा योग करें प्रभु धारण ।
कर्म नष्ट कीने जिनराई, तनंक्षण मुक्ति- रमा परणाई ।। फाल्गुन शुक्ल पंचमी न्यारी, सिद्ध हुए जिनवर अविकारी ।। मोक्ष कल्याणक सुर- नर करते, संवल कूट की पूजा करते ॥ चिन्ह 'कलश' था मल्लिनाथ का, जीन महापावन था उनका ॥
नरपुंगव थे वे जिनश्रेष्ठ, स्त्री कहे जो सत्य न लेश । कोटि उपाय करो तुम सोच, स्वीभव से हो नहीं मोक्ष ।।
महाबली थे वे शुरवीर, आत्म शत्रु जीते धर- धीर ।। अनुकम्पा से प्रभु मल्लि हैं, अल्पायु हो भव... वल्लि की। अरज यही है बस हम सब की, दृष्टि रहे सब पर करूणा की।
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